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अगला यथार्थ

हिमांशु जोशी

प्रकाशक : पेंग्इन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7147
आईएसबीएन :0-14-306194-1

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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...

 

कथा से कथा-यात्रा तक


आज जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो सच नहीं लगता। अरे, पूरी आधी शताब्दी बीत गई, पर वे सारी घटनाएं मुझे कल की सी क्यों लगती हैं-अभी-अभी की जैसी !

जिंदगी तब शुरू कर ही रहा था। अंधे तूफानी सागरों को अपनी हथेलियों की पतवार से पार करने का दुस्साहस!

अजीब संघर्षों के दिन थे वे !

पत्थर की कठोर चट्टानों को अपने नाखूनों से खुरच-खुरच कर पांव टिकाने भर की ठौर तलाश रहा था।

हरे-भरे शीतल, शांत हिमाच्छादित पर्वतों की सुनहरी क्षितिज-रेखाओं को पार कर, धधकती आग के जंगल में भटकता हुआ, भीड़ में अपने को खोज रहा था-अनजान अपरिचित बीहड़ों में।

दिन भर भटकने के पश्चात जब शाम को ‘सराय' पर लौटता, तो सारे दिन की थकान घनीभूत होकर, सारी देह को संज्ञाशून्य कर देती।

जिद थी मेरी !

मैं अपनी राह स्वयं बना रहा था। अपना भवितव्य स्वयं गढ़ रहा था। हथेली पर सारा ब्रह्मांड रख कर हर असंभव को संभव बनाने के लिए जैसे कृत संकल्प!

एक दिन यों ही भटकता हुआ जैनेंद्र जी से मिलने चला गया-दरियागंज !

जैनेंद्र जी अपनी दार्शनिक मुद्रा में बैठे थे। बातों ही बातों में रोम्या रोला का ज़िक्र आया, फिर लेव तल्स्तोय का। जैनेंद्र जी बोले, "तल्स्तोय कहते थे-परमात्मा ने आदमी को खाने के लिए एक मुंह दिया है तो काम करने के लिए दो हाथ भी। परंतु आज तक दुनिया में कोई ऐसी व्यवस्था नहीं बन पाई जो दो हाथों को समुचित काम देकर, उसे स्वाभिमान से जीने का हक प्रदान कर सके।''

कुछ देर बैठ कर उठने लगा तो जैनेंद्र जी मेरे हाथ में पकड़े कागज़ों को देखकर बोले, "यह क्या है?"

“जी, कुछ नहीं....”

"कुछ तो है !"

“नहीं, नहीं, कुछ नहीं....” संकोच से मैंने कहा।

"अरे भई, कुछ तो है, फिर कुछ क्यों नहीं...?" उन्होंने अंतिम शब्दों पर किंचित बल देते हुए कहा।

"ऐसे ही कल रात कुछ लिख रहा था....।”

"कहानी है-?"

“कहानी-वहानी क्या, ऐसा ही कुछ व्यर्थ-सा।”

“दिखलाओ! हम भी देखें कैसा लिखते हो।”

उन्होंने गोलाई में लिपटे उन कागज़ों को ले लिया। और शाम चार बजे ले जाने के लिए कहा, तब तक वे पढ़ लेंगे।

मैं अजीब उलझन में। कहानी जैसी कहानी हो तो कुछ बात भी हो। पर, जैनेंद्र जी की जिद के आगे...।

ठीक चार बजे वहां पहुंचा तो बोले, “कहानी पढ़ ली है। यहीं पास ही दस, दरियागंज में 'नवभारत टाइम्स' का कार्यालय है। अक्षय को दे आओ। कहना कि जैनेंद्र जी ने भिजवाई है। वे मुझे फोन कर लें।”

मैं गहरे संकोच में।

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    अनुक्रम

  1. कथा से कथा-यात्रा तक
  2. आयतें
  3. इस यात्रा में
  4. एक बार फिर
  5. सजा
  6. अगला यथार्थ
  7. अक्षांश
  8. आश्रय
  9. जो घटित हुआ
  10. पाषाण-गाथा
  11. इस बार बर्फ गिरा तो
  12. जलते हुए डैने
  13. एक सार्थक सच
  14. कुत्ता
  15. हत्यारे
  16. तपस्या
  17. स्मृतियाँ
  18. कांछा
  19. सागर तट के शहर

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